22 दिन बाद जब पाक ने सौरभ का शव लौटाया तो परिवार पहचान नहीं पाया, चेहरे पर न आंखें थीं न कान, बस आइब्रो बाकी थीं

कैप्टन सौरभ कालिया, करगिल वॉर के पहले शहीद, पहले हीरो। जिनके बलिदान से करगिल युद्ध की शुरुआती इबारत लिखी गई। महज 22 साल की उम्र में 22 दिनों तक दुश्मन उन्हें बेहिसाब दर्द देता रहा। सौरभ के पिता ने पिछले 21 सालों में इंसाफ की जो अपील 500 से ज्यादा चिटि्ठयों के जरिए की हैं, उन कागजों में वो सभी दर्द दर्ज हैं।

पाकिस्तानियों ने सौरभ के साथ अमानवीयता की सारी हदें पार करते हुए उनकी आंखें तक निकाल ली और उन्हें गोली मार दी थीं। दिसंबर 1998 में आईएमए से ट्रेनिंग के बाद फरवरी 1999 में उनकी पहली पोस्टिंग करगिल में 4 जाट रेजीमेंट में हुई थी। जब मौत की खबर आई तो बमुश्किल चार महीने ही तो हुए थे सेना ज्वाइन किए।

14 मई को कैप्टन सौरभ कालिया अपने पांच जवानों के साथ बजरंग चोटी पर पहुंचे थे। उसके बाद पाकिस्तान ने उन्हें बंदी बना लिया और 22 दिन बाद उनका शव सौंपा।

तारीख 3 मई 1999, ताशी नामग्याल नाम के एक चरवाहे ने करगिल की ऊंची चोटियों पर कुछ हथियारबंद पाकिस्तानियों को देखा और इसकी जानकारी इंडियन आर्मी को आकर दी थी। 14 मई को कैप्टन कालिया पांच जवानों के साथ पेट्रोलिंग पर निकल गए। जब वे बजरंग चोटी पर पहुंचे तो उन्होंने वहां हथियारों से लैस पाकिस्तानी सैनिकों को देखा।

कैप्टन कालिया की टीम के पास न तो बहुत हथियार थे न अधिक गोला बारूद। और साथ सिर्फ पांच जवान। वे तो पेट्रोलिंग के लिए निकले थे। दूसरी तरफ पाकिस्तानी सैनिकों की संख्या बहुत ज्यादा थी और गोला बारूद भी। पाकिस्तान के जवान नहीं चाहते थे कि ये लोग वापस लौटे। उन्होंने चारों तरह से कैप्टन कालिया और उनके साथियों को घेर लिया।

9 जून 1999 को सौरभ कालिया का शव उनके घर पहुंचा था। अंतिम दर्शन के लिए पूरा शहर उनके घर पहुंचा था।

कालिया और उनके साथियों ने जमकर मुकाबला किया लेकिन जब उनका एम्युनेशन खत्म हो गया तो पाकिस्तानियों ने उन्हें बंदी बना लिया। फिर जो किया उसे लिखना भी मुश्किल है। उन्होंने कैप्टन कालिया और उनके पांच सिपाही अर्जुन राम, भीका राम, भंवर लाल बगरिया, मूला राम और नरेश सिंह की हत्या कर दी और भारत को उनके शव सौंप दिए।

कैप्टन कालिया के छोटे भाई वैभव कालिया बताते हैं कि उस समय बमुश्किल बात हो पाती थी, उनकी ज्वाइनिंग को मुश्किल से तीन महीने हुए थे। हमने तो उन्हें वर्दी में भी नहीं देखा था। फोन तो तब था नहीं, सिर्फ चिट्‌ठी ही सहारा थी, वो भी एक महीने में पहुंचती थी। एक अखबार से हमें सौरभ के पाकिस्तानी सेना के कब्जे में होने की जानकारी मिली। लेकिन हमें कुछ समझ नहीं आ रहा था इसलिए हमने लोकल आर्मी कैंटोनमेंट से पता किया।

सौरभ की यह आखिरी तस्वीर है, जिसमें वे अपनी मां के साथ दिख रहे हैं। हालांकि, यह तस्वीर सौरभ देख भी नहीं पाए थे।

मई 1999 की दोपहर जब सौरभ की मम्मी विजया कालिया को ये खबर मिली की उनके बेटे का शव मिल गया है तो वह ये सदमा बर्दाश्त नहीं कर पाईं। जब कैप्टन कालिया का शव उनके घर पहुंचा तो सबसे पहले भाई वैभव ने देखा। वे बताते हैं कि उस समय हम उनकी बॉडी पहचान तक नहीं कर पा रहे थे। चेहरे पर कुछ बचा ही नहीं था। न आंखें न कान। सिर्फ आइब्रो बची थीं। उनकी आइब्रो मेरी आइब्रो जैसी थीं, इसी से हम उनके शव को पहचान पाए।

सौरभ ने आखिरी बार अपने भाई को अप्रैल में उसके बर्थडे पर फोन किया था। और 24 मई को जब सौरभ का आखिरी खत घर पहुंचा, तब वो पाकिस्तानियों के कब्जे में थे। अपनी मां को कुछ ब्लैंक चेक साइन कर के दे गए थे, ये कहकर किमेरी सैलेरी से जितने चाहे पैसे निकाल लेना। लेकिन, सौरभ की पहली सैलरी उनकी शहादत के बाद अकाउंट में आई।

कैप्टन सौरभ कालिया अपने छोटे भाई वैभव कालिया के साथ। वैभव अभी पालमपुर मेंअसिस्टेंट प्रोफेसर हैं।

शहादत के 21 साल बाद भी शायद ही कोई दिन होगा जो उनके यादों के बिना गुजरता होगा। वैभव कहते हैं कि वे आज भी हम सब के बीच हैं, उनकी मौजूदगी का हमें एहसास होता है। मां अक्सर उनके बचपन के किस्से सुनाया करती हैं, बच्चों को हम उनकी वीरता की कहानी सुनाते हैं। उन्हें और उनकी पूरी फैमिली को लोग सौरभ कालिया के नाम से जानते हैं।

वैभव बताते हैं कि वो जब कभी मुसीबत में होते हैं तो अपने भाई को याद करते हैं। और सोचता हूं, उनके साथ जो हुआ, जिन मुश्किलों का सामना उन्होंने किया उसके सामने हमारी तकलीफें कुछ भी नहीं है।

सौरभ को बचपन से ही आर्मी में जाना था। उन्होंने 12वीं के बाद एएफएमसी का एग्जाम दिया, लेकिन वे पास नहीं कर सके। ग्रेजुएशन करने के बाद उन्होंने सीडीएस की परीक्षा दी और उनका सिलेक्शन भी हो गया। हम सभी बहुत खुश थे, मां-पापा को भी गर्व था कि उनका बेटा आर्मी में गया है।

अपनी मां विजया कालिया की गोद में कैप्टन सौरभ कालिया।

सिलेक्शन के बाद डॉक्यूमेंट की वजह से उनकी ज्वाइनिंग में दो-तीन महीने की देर हो गई। उनके पास ट्रेनिंग के लिए अगली बैच में जाने का मौका था, लेकिन उन्होंने देरी के बाद भी उसी बैच में जाने का फैसला लिया। उन्होंने ट्रेनिंग के गैप को पाटने के लिए खूब मेहनत की और दिसंबर 1998 में आईएमए से पास आउट हुए।

वे बताते हैं कि अगर सौरभ ने उस समय ज्वाइन न कर अगले बैच में ज्वाइन किया होता तो वे जून-जुलाई में पास आउट होते। तब शायद बात कुछ और होती।

कैप्टन सौरभ कालिया का पर्स। उनको हनुमान जी बहुत पसंद थे, वे अपने साथ उनकी तस्वीर रखते थे।

इन 21 सालों में सौरभ के परिवार ने उन्हें न्याय दिलाने के लिए काफी संघर्ष किया है। ह्यूमन राइट कमीशन, भारत सरकार और सेना के न जाने कितने चक्कर काटे। उनका परिवार चाहता है कि पाकिस्तान ने जो दरिंदगी सौरभ और उसके साथ पेट्रोलिंग पर गए जवानों के साथ दिखाई उसे लेकर पाकिस्तान पर कार्रवाई हो।

मामले को इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस तक ले जाया जाए। लेकिन, इसके लिए पहल सरकार को करना होगी। फिलहाल मामला सुप्रीम कोर्ट में है। उनके पिता के पास सौरभ के लिए देशभर में लगाई अपीलों से जुड़ी एक फाइल है। वो कहते हैं जब तक जिंदा हूं, तब तक इंसाफ की कोशिश करता रहूंगा।